बैठ जाती हूं मिट्टी पर अक्सर
बैठ जाती हूं मिट्टी पर अक्सर.....
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है...
मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीका...
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना...
ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है पर सच कहती हूं
मूझमे कोई फरेब नहीं है।
जल जाता हैं मेरे अंदाज से मेरे दुश्मन
क्योंकि एक जमाने से मैंने
न मोहब्बत बदली और ना ही दोस्त बदले।।
एक घड़ी खरीद कर हाथ में क्या बांध ली....
वक्त तो मेरे पीछे ही पड़ गया।।
सोचा था घर बना कर बैठूंगी सुकून से....
पर घर की जरूरतों ने मुसाफिर बना डाला...
सुकून की बात मत कर ऐ गालिब....
वह बचपन वाला इतवार अब नहीं आता..
शौक तो मां - बाप के पैसों से पुरी होती हैं
अपने पैसों से तो बस जरूरत ही पूरी हो पाती हैं....
एक सवेरा था जब हंस कर उठा करती थी, और
आज कई बार
बिना मुस्कुराए ही शाम हो जाती है।।
कितने दूर निकल गए हैं हम,
रिश्तो को निभाते - निभाते...
खूद को खो दिया हैं हमने ,
अपनों को पाते-पाते...
लोग कहते हैं हम मुस्कुराते बहुत हैं ,
और मै थक गई हूं दर्द छुपाते - छुपाते ....
खुश हूं और सबको खुश रखती हूं,
लापरवाह हूं फिर भी सबकी परवाह करती हूं....
मालूम है कोई मोल नहीं है मेरी,
फिर भी कुछ अनमोल लोगों से रिश्ता रखती हूं....
यूं ही मैं दिल को साफ रखने की बात करती हूं ....
पिता नहीं था कीमत तो चेहरों की हुआ करती है
जिंदगी का इतना तजुर्बा तो नहीं ....पर सुना है
सादगी में लोग जीने नहीं देते ।
कीसी की गलतियों का हिसाब ना कर
खुदा बैठा है तू तो हिसाब ना कर
ईश्वर बैठा है तू हिसाब करना।।
Wow it's amazing 😍
ReplyDelete